दुर्योधन ने क्या वर मांगा | दुर्योधन महर्षि दुर्वासा की कथा

दुर्योधन ने क्या वर मांगा | दुर्योधन महर्षि दुर्वासा की कथा

Duryodhan and Durvasa Rishi

दुर्योधन ने क्या वर मांगा दुर्वासा ऋषि से

महाभारत काल के सबसे तेजस्वी ऋषियों में से एक महर्षि दुर्वासा अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे। उनका क्रोध अद्वितीय था और वे क्रोध में आकर किसी को भी श्राप दे सकते थे। धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को उनके इस स्वभाव के बारे में पता था।


एक दिन ऋषि दुर्वासा कुरु जनपद के दौरे पर थे। जहां के राजा दुर्योधन और उनके मामा शकुनि उनकी सेवा करते हैं और वे ऋषि को प्रसन्न करने में सफल हो जाते हैं।


ऋषि ने प्रसन्न होकर दुर्योधन को वरदान मांगने के लिए के कहा। दुर्योधन ने ऋषि दुर्वासा से अपने चचेरे भाई युधिष्ठिर से मिलने का आग्रह किया क्योंकि वह परिवार का सबसे बड़ा पुत्र है और उसे भी ऋषि की सेवा करने का अवसर मिलना चाहिए।


उसके द्वारा अनुरोध करने पर, ऋषि दुर्वासा ने निर्वासित युधिष्ठिर और उसके भाइयों से मिलने जाने का सोचा और वे अपने शिष्यों के साथ वन की ओर निकल पड़े। दुर्योधन जानता था कि जब द्रौपदी भोजन कर लेगी तो पांडवों के पास भोजन समाप्त हो जाए गा और वे किसी और को भोजन नहीं करवा पाएंगे। इसलिए, उसने जानबूझकर द्रौपदी के भोजन के बाद ही ऋषि दुर्वासा को भेजा।


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जब ऋषि पांडवों की कुटिया पहुंचे तो उनका स्वागत बड़े आदर भाव से किया। ऋषि ने जब भोजन की इच्छा जाहिर की तो युधिष्ठिर कहता है ‘जी ऋषिवर! आप सामने से जा रही पवित्र नदी मे स्नान कर लौटेंगे तो यहां भोजन की व्यवस्था हो चुकी होगी’ ऐसा सुनकर महर्षि दुर्वासा भी अभिभूत होते हैं और स्नान हेतु चले जाते हैं।


भोजन के पात्र में सिर्फ एक दाना चावल का बचा है ये तो द्रौपदी भी जानती थी और पांडव भी, पर घर आए अथिति को बिना भोजन भेजना भी उनको गवारा न था।


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श्री कृष्ण का आगमन

दुर्योधन ने क्या वर मांगा | दुर्योधन महर्षि दुर्वासा की कथा

इतने में प्रभु श्री कृष्ण वहा प्रकट होते हैं और अपनी बहन द्रौपदी से भोजन मांगते हैं। द्रौपदी चावल का वह दाना कृष्ण को देकर कहती है ‘है कान्हा मेरे पास तो केवल यह एक दाना चावल का है। इसे आधा आप खा लीजिए और बाकी आधे से पूरी दुनिया की भूख शांत कर दीजिए।’


प्रभु अपनी लीला दिखाते हैं और जैसे ही चावल वो दाना ग्रहण करते हैं तो संपूर्ण पृथ्वी पर उस समय भूख का अनुभव कर रहे हर व्यक्ति को तृप्ति का आभास होने लगता है। इसी वजह से स्नान कर नदी से बाहर निकले महर्षि दुर्वासा और उनके शिष्यों की भूख भी शांत हो जाती है। 


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और वे भोजन न करने हेतु क्षमा मांग, पांडवों और द्रौपदी को आशीर्वाद दे वहा से प्रस्थान करते हैं। इस प्रकार दुर्योधन की मंशा के विपरीत पांडवों को ऋषि से श्राप की बजाए स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त होता है।

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